मजदूर का मतलब मजबूर लाचारी और गरीबी – नागले
मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है।
पाथाखेड़ा।मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है।सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है।दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया है।दुनिया के सभी देशों की सरकार मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती है।इसीलिए मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता है।भारत में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं है।हमारे देश की सरकार भी मजदूर हितों के लिए बहुत बातें करती है।बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है।मगर जब उनको अमलीजामा पहनाने का समय आता है तो सब इधर-उधर ताकने लग जाते हैं। मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है।किसी भी राष्ट्र की प्रगति करने का प्रमुख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है।मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र तरक्की करता है।लेकिन भारत का श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है।हमारे देश में मजदूरों का शोषण आज भी जारी है।
12-12 घंटे लगातार काम
ना पीने को साफ पानी मिलता है और ना ही स्वच्छ वातावरण। शहर के किसी गंदे नाले के आसपास बसने वाली झोपड़ पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। मगर इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनत से अपने मालिकों के यहां काम करने वाले मजदूरों के प्रति मालिकों के मन में जरा भी सहानुभूति के भाव नहीं रहते हैं। उनसे 12-12 घंटे लगातार काम करवाया जाता है। घंटो धूप में खडे रहकर बड़ी बड़ी कोठियां बनाने वाले मजदूरों को एक छप्पर तक नसीब नही हो पाता है।
मजदूरों का शहर की तरफ पलायन
हमारे देश का मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थिति में रह रहा है। उनको न तो मालिकों द्वारा किए गए कार्य की पूरी मजदूरी दी जाती है और ना ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती है। गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं। जहां ना उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढ़ग का काम मिल पाता है। मगर आर्थिक कमजोरी के चलते शहरों में रहने वाले मजदूर वर्ग जैसे तैसे कर वहां अपना गुजर-बसर करते हैं।
बड़े शहरों में झोंपड़ पट्टी बस्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है।
जहां रहने वाले लोगों को कैसी विषम परिस्थितियों का सामना करता है। इसको देखने की न तो सरकार को फुर्सत है ना हीं किसी राजनीतिक दलों के नेताओं को। झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले मजदूरों को शौचालय जाने के लिए भी घंटों लाइनों में खड़ा रहना पड़ता है। झोपड़ पट्टी बस्तियों में ना रोशनी की सुविधा रहती है।
नोट नगर पालिका परिषद सारनी के प्रतिपक्ष नेता पिटीश नागले की यह व्यक्तिगत राय एवं लेख है इससे हमारा कोई लेना देना नहीं है।